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उत्तराखंड : ऋषिकेश में बदल रही थी अभिनेता संजय मिश्रा की जिंदगी

रामझूला के पास, संजय मिश्रा से मुलाकात के लिए वरिष्ठ पत्रकार गौरव मिश्रा के साथ पहुंचे

उत्तराखंड : ऋषिकेश में बदल रही थी अभिनेता संजय मिश्रा की जिंदगी ऋषिकेश से जुड़े पुराने पन्ने पलटे और बोले- हां, इमोशनल तो है ऋषिकेश मेरे लिए भारतीय सिनेमा के प्रसिद्ध अभिनेता संजय मिश्रा की सादगी के क्या कहने, आम इंसान की तरह जीते हैं और कहते हैं, जो मैं असल जिंदगी में देखता हूं, वो रील लाइफ में भी जीने की कोशिश करता हूं। मैं अभिनेता हूं, मेरा काम अभिनय करना है, चाहे कॉमेडी हो या फिर सीरियस रोल हो। मुझे अच्छा लगता है, दोनों तरह का काम करना है। मेरे डायरेक्टर्स, जिन्होंने मुझे इस तरह के रोल करने के लिए प्रेरित किया, मैं उनका आभारी हूं, कि उन्होंने मुझे दूसरे तरह के रोल के लिए भी ट्राय किया। अदरवाइज, हमारे यहां फिल्म इंडस्ट्री में यह होता है, कॉमेडी करने लगे, तो कॉमेडी, कॉमेडी, कॉमेडी…,ये सब होता है। पर, मैं थोड़ा बच गया। मैं कॉमेडी अभी भी करता हूं। मेरी भूलभुलैया, सर्कस, वो तीन दिन, वध…, जैसी फिल्में रीलिज हुई हैं, सब अलग-अलग तरह की फिल्में हैं। यह अच्छी बात है कि मेरे लिए कि अलग-अलग फिल्में कर रहा हूं। आप अभिनय के लिए किसी फ्रेम में नहीं बंधे, के सवाल पर कहते हैं, नहीं मैं नहीं बंधा। मुझे बांधा नहीं गया। बांध तो देते ही, पर हर तरह का प्रयास किया। इसमें मेरा पर्सनल प्रयास भी है। लोगों ने मुझे अलग अलग भूमिकाओं में पसंद किया। आगे भी डिफरेंट रोल में आ रहा हूं। रामझूला के पास, संजय मिश्रा से मुलाकात के लिए वरिष्ठ पत्रकार गौरव मिश्रा के साथ पहुंचे। हम सोच रहे थे कि संजय मिश्रा, जैसे प्रसिद्ध अभिनेता किसी बड़े होटल में लंच कर रहे होंगे, पर ऐसा कुछ नहीं था। संजय मिश्रा, एक सामान्य कैंटीन में परिवार के कुछ सदस्यों के साथ लंच करते दिखे। भोजन के बीच में ही, हमसे पूछते हैं, आप भी कुछ खाइए। हमने उनके आग्रह पर, उनका धन्यवाद किया, तो संजय बोले, अच्छा चाय तो चलेगी। कुछ ही देर में भोजन करने के बाद, उन्होंने कहा, बताइए, कहां बैठकर बात करें। कैंटीन से बाहर आकर कहने लगे, चलो उस पेड़ के नीचे बैठते हैं। फिल्मों में जैसे दिखते हैं, उसी तरह बढ़ी हुई दाड़ी, बार बार मूंछों पर हाथ फेरते संजय मिश्रा से अपनी पहली मुलाकात में हम ऐसा महसूस ही नहीं कर रहे थे कि हम बड़े पर्दे पर, जिस शख्स की कॉमेडी देखकर हंसते हैं, गुदगुदाते हैं, यह वही शख्स हैं, जिन्हें उनके प्रशंसक भरपूर प्यार करते हैं। आते- जाते लोगों का अभिवादन मुस्कुराते हुए स्वीकार करते, अपने साथ फोटो क्लिक कराने की चाह रखने वालों को उन्हीं मना नहीं किया। बल्कि, उनसे बात भी, यह भी पूछा, कहां से आए हो, क्या करते हो। बातचीत से पहले हमने कहा, आपके साथ ऋषिकेश के कुछ पुराने पन्नों को पलटने की कोशिश करेंगे। आपके नजरिये से ऋषिकेश को जानने की कोशिश करते हैं। बातचीत शुरू हुई, तो कहने लगे। ऋषिकेश भारत का गौरव है। गंगा के किनारे जितने भी शहर हैं, सभी मुझे पसंद हैं। गंगा के किनारे संपूर्ण भारत है। ऋषिकेश ऐसे ही मेन्टेन रहे, ऋषिकेश को ऋषिकेश ही रहने दिया जाए। इसको पेरिस न बनाया जाए। मैंने जब मिलने वाले लोगों से पूछा, कहां रहते हो, किसी ने यह नहीं कहा, हम ऋषिकेश में रहते हैं। कोई गुजरात से था, कोई पंजाब से, कोई बंगाल से, तो कोई महाराष्ट्र से… यहां देश के हर राज्य से लोग पहुंचते हैं। विदेशों से भी लोग आते रहते हैं। कॉमेडी और गंभीर मुद्दों पर बनने वाले फिल्मों में अभिनय, में आपकी पहली पसंद क्या है, तो उनका जवाब था, मुझे गंगा किनारे रहना पसंद है और काम करना पसंद है, इसमें कॉमेडी हो या फिर सीरियस। आपको अभी तक की अपनी कौन सी फिल्म पसंद है, पर कहते हैं, यह मेरे मौसम पर डिपेंड करता है। कभी मुझे “कामयाब” अच्छी लगती है, गर्व फील होता है। कभी मुझे अपनी फिल्म “आंखों देखी” बहुत अच्छी लगती है। कभी सोचता हूं, मेरी फिल्म “कड़ुवी हवा”, बहुत शानदार है। हालांकि, अभी भी, मुझे अपनी सबसे अच्छी फिल्म का इंतजार है। उसकी शूटिंग बाकी है। मेरी पसंद की, सबसे अच्छी फिल्म आने वाली है, वो आएगी। उनकी जिंदगी के कुछ खास पन्ने ऋषिकेश से जुड़े हैं, क्या आप उनको पलटना पसंद करेंगे, पर संजय मिश्रा बोले, अच्छा तो आप उसकी बात को याद दिला रहे हैं। यह संयोग ही है, मैं उस बात को ऋषिकेश में ही एक इंटरव्यू में बता रहा हूं। 2009 में पिता का निधन हुआ।पिता का जाना हर बेटे के लिए, लगता है किसी ने कोई छाया हटा दी है, कोई छतरी हटा दी है। आप कुछ सोच नहीं पाते, आगे क्या होगी जिंदगी। मैं जिंदगी की उसी आपाधापी में था। मैं पिता के साथ ऋषिकेश कई बार आ चुका हूं, भाइयों के साथ यहां आ चुका हूं। पिता की मृत्यु के बाद यहां चला आया। गंगोत्री जाने वाले रास्ते में, एक बुजुर्ग थे, जिनको शायद उनके बच्चे समझ नहीं पा रहे थे। उन बुजुर्ग को उनके बच्चे, सुबह होते ही घर से निकाल देते थे। कहते थे, शाम को ही आइए, यहां सोने के लिए। घर से निकलने के बाद, बुजुर्ग लकड़ी जलाकर, कुछ बर्तन लेकर बैठे रहते थे। कोई आ जाता था, मैगी लेकर, उनसे कहता, चाचा मैगी बना दो। बुजुर्ग को मैगी बनाने के लिए एक- दो रुपये थमा दिए जाते थे। मैं भी भटका हुआ था, वो भी भटके हुए थे। मैं उनके यहां काम करने लगा। मैंने उनसे कहा, चाचा हम खुद लाएंगे मैगी, यहीं से मैगी बनाकर बेचेंगे। जिंदगी में एक्टिंग के अलावा भी कुछ नया सूझा था। लेकिन फिर बंबई वालों को खूब कमी खल रही थी मेरी, तो उन्होंने वापस बुला लिया। हां, इमोशनल तो है ऋषिकेश मेरे लिए। मैं जिंदगी में एक्टिंग करता हूं, जब रील लाइफ की बात आती है, तो मैं जिंदगी जीता हूं। मैं यहीं लोगों से सीखकर जाता हूं और एक्टिंग में कोशिश करता हूं, आम आदमी को रिप्रेजेंट करता हूं। आम हिन्दुस्तानी को रिप्रेंजेंट करता हूं। वध के लिए मुझे बेस्ट फिल्म फेयर अवार्ड मिला। अपने क्रिटिक्स को बहुत धन्यवाद देना चाहूंगा, जो उन्होंने इस फिल्म को अपना प्यार दिया। यह सोच समझ कर बनाई गई फिल्म है।

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