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उत्तराखंड : तो नहीं बन सके अटल आदर्श – जिम्मेदार कौन ?

अटल आदर्श विद्यालय खोलने के प्रयोग में इंटरमीडिएट स्तर पर लगभग आधे छात्र इक्कीसवीं सदी के High Scoring बोर्ड परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो गए, इंटरमीडिएट स्तर पर अटल उत्कृष्ट विद्यालयों का परिणाम 51.49 प्रतिशत रहा है ।

उत्तराखंड : तो नहीं बन सके अटल आदर्श – जिम्मेदार कौन ? क्या उत्तराखण्ड विद्यालयी शिक्षा व्यवस्था बच्चों के साथ-साथ सीबीएसई पर भी बोझ बन गई ? गुणवत्ता के नाम पर विद्यालयों का नामकरण कर इतिश्री कर लेना और दुर्गम sentiment से इस कदर खेलना कि देहरादून घण्टाघर के अटल विद्यालय को भी दुर्गम घोषित कर देना बताता है कि हमारे नीति नियंता शिक्षा के प्रति कितने गंभीर हैं । अटल आदर्श विद्यालय खोलने के प्रयोग में इंटरमीडिएट स्तर पर लगभग आधे छात्र इक्कीसवीं सदी के High Scoring बोर्ड परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो गए, इंटरमीडिएट स्तर पर अटल उत्कृष्ट विद्यालयों का परिणाम 51.49 प्रतिशत रहा है । 12534 छात्र-छात्राओं में से केवल 6454 बच्चे ही इंटरमीडिएट स्तर पर उत्तीर्ण हो सके जबकि 6080 बच्चे अनुत्तीर्ण हुए हैं । इस परीक्षाफल की विभागीय समीक्षा भी संभवतया होगी और सरकारी व्यवस्था में ऐसा होता रहता है, ऐसी मनोदशा के साथ-साथ कुछ तथाकथित कड़े और बड़े निर्णय लिए जाएंगे जो एक दो दिन अखबार की सुर्खियों में जरूर रहेंगे । इन विद्यालयों का हाईस्कूल का परीक्षाफल 60.49 प्रतिशत रहा । हाईस्कूल में 8499 में से 5341 बच्चे उत्तीर्ण हुए हैं जबकि 3358 छात्र-छात्राएं अनुत्तीर्ण हुए ।यह परीक्षाफल न केवल बच्चों पर भारी रहा बल्कि सीबीएसई का overall उत्तीर्ण प्रतिशत अटल उत्कृष्ट विद्यालयों के परीक्षा परिणाम के कारण गिर गया। यह सवाल उत्तराखण्ड विद्यालयी शिक्षा के नीति नियंताओं पर कई बड़े सवाल खड़ा करती है – 👉 क्या राजनीतिक निर्णय, प्रशासनिक निर्णय और अकादमिक निर्णय में अंतर नहीं होता है ? 👉 किसी कार्यक्रम के launch करने भर मात्र से ही कार्यक्रम अपने उद्देश्यों को प्राप्त नहीं कर लेता । उसको धरातल पर सफल बनाने की जिम्मेदारी भी हमारी ही है । 👉 अकादमिक निर्णय, प्रशासनिक निर्णयों से बहुत अलग होते हैं इनके तात्कालिक के साथ-साथ गंभीर दूरगामी परिणाम होते हैं । यह निर्णय पीढ़ियों को बनाने और बिगाड़ने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं । 👉 सरकारी विद्यालयों में पढ़ने वाले छात्र-छात्राओं का भविष्य निर्माण, राज्य और सरकार (विद्यालय और शिक्षकों) की शासकीय और नैतिक ज़िम्मेदारी है । 👉 विद्यालयों में मुखिया / प्रधानाचार्य की अहम भूमिका को नकारा नहीं जा सकता । विभाग अनिर्णयता की आड़ में अपनी जिम्मेदारियों से बच नहीं सकता । कैसा भी मसला न्यायालयों में लंबित क्यों न हो लेकिन विभाग को शिक्षकों की पदोन्नति और प्रधानाध्यापक एवं प्रधानाचार्य की पदोन्नति के विकल्प खोजने चाहिए । 👉 छात्रहित में ठोस और प्रभावी नीतियां बननी चाहिए, छात्र-छात्राओं के भविष्य संवारने की जिम्मेदारी की गंभीरता विभाग और सरकार को समझनी चाहिए । 👉 उत्तराखंड जैसे पहाड़ी राज्य में दुर्गम के sentiment को cash करते हुए अति सुगम विद्यालयों को दुर्गम का बता कर, शिक्षकों को आकर्षित तो किया जा सकता है लेकिन प्रभावी शिक्षण के लिए प्रेरित नहीं किया जा सकता । 👉 विद्यालयों की ओर अनावश्यक पत्रों की दौड़ और आंकड़ों की मांग एक दिन ऐसी स्थिति उत्पन्न कर देगी कि अपनी उपलब्धि दिखाने के लिए विभाग के पास आंकड़े ही नहीं बचेंगे । 👉 समयबद्ध पदोन्नति, पारदर्शी स्थानांतरण नीति, मौलिक प्रधानाचार्य, प्रधानाध्यापक और शिक्षक की एहमियत और उपयोगिता समझनी होगी । 👉 विभाग को अस्थायी समाधान नहीं बल्कि स्थायी समाधान के साथ-साथ शिक्षा के प्रति स्पष्ट दृष्टिकोण की आवश्यकता है । 👉 जिम्मेदार अधिकारियों को अनिर्णयता के बहाने नहीं निर्णय लेने के अवसर ढूँढने होंगे । 👉 सेवानिवृत्ति के लिए केवल दिन नहीं काटने होंगे बल्कि शैक्षिक नेतृत्व प्रदर्शित करना होगा ।

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